ग़ज़ल
कफील अहमद
टोरंटो ,कनाडा
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ऐसी शबीह जो मेरे दर्पण में रह गई
तख़लीक़ से ही वो मेरे बंधन में रह गई
हल्की सी मुस्कुराहट और आंखें शरीर सी
बचपन की याद सिर्फ मेरे मन में रह गई
वो ले गया सभी मेरी खुशयां समेट के
और उसकी तल्ख़ बात ही दामन में रह गई
हिजरत ने यूँ तो मुझको बहुत कुछ दिया मगर
मिट्टी की मेरी खुशबू तो आँगन में रह गई
ऐय्यामे बेबसी का उसे इल्म था मगर
कैसे करे मदावा इस उलझन में रह गई
चाहूँ भी उसको भूलना मुमकिन नहीं है अब
कुछ इस तरह से दिल के वो गुलशन में रह गई
उसकी गली का रस्ता मुझे अजनबी लगा
जब से सिमट के अपने वो आँगन में रह गई
अपने को मैं कफील मुकम्मल न कर सका
कोशिश के कोई साथ हो धड़कन में रह गई
غزل
کفیل احمد
ٹورانٹو،
کینڈا
ایسی شبیہ جو مرے درپن میں رہ گئی
تخلیق سے ہی وہ مرے بندھن میں رہ گئی
ہلکی سی مسکراہٹ اور آنکھیں شریر سی
بچپن کی یاد صرف مرے من میں رہ گئی
وہ لے گیا سبھی مری خوشیاں سمیٹ کے
اور اس کی تلخ بات ہی دامن میں رہ گئی
ہجرت نے یوں تو مجھ کو بہت کچھ دیا مگر
مٹی کی میری خوشبو تو آنگن میں رہ گئی
ایامِ بے بسی کا اسے علم تھا مگر
کیسے کرے مداوا اس الجھن میں رہ گئی
چاہوں بھی اس کو بھولنا ممکن نہیں ہے اب
کچھ اس طرح سے دل کے وہ گلشن میں رہ گئی
اس کی گلی کا رستہ مجھے اجنبی لگا
جب سے سمٹ کے اپنے وہ آنگن میں رہ گئی
اپنے کو میں کفیل مکمل نہ کر سکا
کوشش کہ کوئی ساتھ ہو دھڑکن میں رہ گئی